गुज़र रहा था तन्हाईयों से,
कि तेरी इबादत मिल गयी,
कोई कद्रदान ना मिला तो,
बस वो मेरी नेमत बन गयी ।
मुश्किल सी लगी हिफाज़त,
जैसे कोई आफत बन गयी,
मिला रहमत से फिर इल्म,
इबादत ये नसीहत बन गयी ।
निज़ाते-तकलीफ बढ़ती गयी,
साथ ही ज़रूरत इबादत की,
साथ फ़र्ज़ के करना इबादत,
ईमान मेरी ज़रूरत बन गयी ।
अब ना कोई मशरुफियत है,
ना ही पाबन्दियाँ वक़्त की,
फ़र्ज़ औ' ईमान रखना कायम
मकसद यही इबादत बन गयी ।
' रवीन्द्र '
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