Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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इल्तिज़ा अमन की

 

खुदा तेरे ड़र से बची है, इंसानियत की बस्तियाँ,
निड़र नाख़ुदाओं ने तो, इन्सां को हैवान बनाया ।

 

 

इनायत की गर चाहे, तो नज़र ना फेरिये,
अनचाहा फिज़ा में मगर, ज़हर ना घोलिये ।

 

 

ज़म्हूरियत की ज़हीन, जरुरत को समझिये,
ना मज़हब को नज़र-ए-सियासत से तौलिये ।

 

 

मिली है आज़ादी, कितनी क़ुर्बानियों के बाद,
अपनी नहीं हुज़ूर, अगली नस्लों की सोचिये ।

 

 

बन जाती हैं सरकारें, बन कर गिरती भी हैं,
टूटे दिल ना जुड़ेगें, गम -ए-दिल से सोचिये ।

 

 

ब-मुश्क़िल हुआ है, कायम सूबे में अमन,
दुआ भी जुबाँ से नहीं, तहे-दिल से दीजिये ।

 

 

बहुत नादां है 'रवि', कुछ ऐसा समझ लेना,
इसे नसीहत नहीं, बस इल्तिज़ा समझिये ।

 

 

 

' रवीन्द्र '

 

 

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