खुदा तेरे ड़र से बची है, इंसानियत की बस्तियाँ,
निड़र नाख़ुदाओं ने तो, इन्सां को हैवान बनाया ।
इनायत की गर चाहे, तो नज़र ना फेरिये,
अनचाहा फिज़ा में मगर, ज़हर ना घोलिये ।
ज़म्हूरियत की ज़हीन, जरुरत को समझिये,
ना मज़हब को नज़र-ए-सियासत से तौलिये ।
मिली है आज़ादी, कितनी क़ुर्बानियों के बाद,
अपनी नहीं हुज़ूर, अगली नस्लों की सोचिये ।
बन जाती हैं सरकारें, बन कर गिरती भी हैं,
टूटे दिल ना जुड़ेगें, गम -ए-दिल से सोचिये ।
ब-मुश्क़िल हुआ है, कायम सूबे में अमन,
दुआ भी जुबाँ से नहीं, तहे-दिल से दीजिये ।
बहुत नादां है 'रवि', कुछ ऐसा समझ लेना,
इसे नसीहत नहीं, बस इल्तिज़ा समझिये ।
' रवीन्द्र '
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