ना हसरत मेरी, ग़ैरों की जमीं थी,
तक़दीर तो ये, तदबीरों से खुली थी ।
दाँव पर सदा से, ये ज़िन्दगी लगी थी,
तबीयत से पासा, फेंकने की कमी थी ।
इल्ज़ाम किसी पे, न वक़्त की कमी थी,
जिंदगी करमों की, मुन्तज़िर बड़ी थी ।
दोस्त बन के जाने, वो कब से खड़ी थी,
नादानियों को बस, भुलाने की कमी थी ।
इबारत हर मर्ज़ की, माज़ी ने लिखी थी,
वक़्त की धार से, ब-मुश्क़िल ये धुली थी ।
दिलबर तेरी चाहत, इस दिल में भरी थी,
वरना तो जिंदगी से, यूँ मुहब्बत नहीं थी ।
कली एक मुसर्रत की, गुल बन खिली थी,
तुझ बागबाँ की मुझको, ज़रूरत बड़ी थी ।
सिर्फ़ तदबीरों के दम से, ना इमारत खड़ी थी,
मुस्तक़िल तेरी निग़ाहों की, इनायत बड़ी थी ।
' रवीन्द्र '
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