Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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इनायत

 

ना हसरत मेरी, ग़ैरों की जमीं थी,
तक़दीर तो ये, तदबीरों से खुली थी ।

 

दाँव पर सदा से, ये ज़िन्दगी लगी थी,
तबीयत से पासा, फेंकने की कमी थी ।

 

इल्ज़ाम किसी पे, न वक़्त की कमी थी,
जिंदगी करमों की, मुन्तज़िर बड़ी थी ।

 

दोस्त बन के जाने, वो कब से खड़ी थी,
नादानियों को बस, भुलाने की कमी थी ।

 

इबारत हर मर्ज़ की, माज़ी ने लिखी थी,
वक़्त की धार से, ब-मुश्क़िल ये धुली थी ।

 

दिलबर तेरी चाहत, इस दिल में भरी थी,
वरना तो जिंदगी से, यूँ मुहब्बत नहीं थी ।

 

कली एक मुसर्रत की, गुल बन खिली थी,
तुझ बागबाँ की मुझको, ज़रूरत बड़ी थी ।

 

सिर्फ़ तदबीरों के दम से, ना इमारत खड़ी थी,
मुस्तक़िल तेरी निग़ाहों की, इनायत बड़ी थी ।

 

 

' रवीन्द्र '

 

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