ना जाने किस की राह में
पाई हुई दौलत उधार दी.
जिंदगी फिर यूँ ही
मुफ़लिसी में गुज़ार दी.
रोता रहा बचपन का मन
खेल खेले सब दूर से,
टूटे हुये खिलौनों से
ज़बरन हंसीं सँवार दी.
जिंदगी फिर यूँ ही
मुफ़लिसी में गुज़ार दी.
बेजान शोखियों का लड़कपन
देखे सिर्फ़ हर्फ़ का रंग,
रास आई जो थोड़ी ख़ुशी
खातिर हुनर कुर्बान की.
जिंदगी फिर यूँ ही
मुफ़लिसी में गुज़ार दी.
जवाँ दिली का वक़्त कम
अहसासे जिम्मेदारी ना कम
कोशिशें जितनी भी की
दुशवारियों को वार दी.
जिंदगी फिर यूँ ही
मुफ़लिसी में गुज़ार दी.
जवानी की छोटी सी डगर
महबूब भी था हमसफ़र,
फिक्र थी कल की मगर
कशमकश में गुज़ार दी.
जिंदगी फिर यूँ ही
मुफ़लिसी में गुज़ार दी.
है जींस्त होने को ख़तम
जितना भी था हासिल करम
लौटा दे अब मय-सूद वो
दौलत मेरी सब प्यार की.
जिंदगी तो बस यूँ ही
मुफ़लिसी में गुज़ार दी.
'रवीन्द्र'
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