Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जुस्तजूं

 

 

है यही तो इश्क़ की जुस्तजूं,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।

 

हों इस तरह तुझ से रु-बरु,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।

 

मिले तो देर तक यूँ गुफ्तगूँ,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।

 

उल्फ़त की है इसी में आबरु,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।

 

हुस्न की भी यही है आरज़ू,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।

 

फिज़ा में हो खुशनुमा सी बू,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।

 

तू मुझ में रहे मैं तुझ में बसूँ,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।

 

थी यही तो इश्क़ की जुस्तजूं,
मैं रहा न मैं और तू रहा न तू ।

 

 

' रवीन्द्र '

 

 

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