है यही तो इश्क़ की जुस्तजूं,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।
हों इस तरह तुझ से रु-बरु,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।
मिले तो देर तक यूँ गुफ्तगूँ,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।
उल्फ़त की है इसी में आबरु,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।
हुस्न की भी यही है आरज़ू,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।
फिज़ा में हो खुशनुमा सी बू,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।
तू मुझ में रहे मैं तुझ में बसूँ,
मैं रहूँ न मैं और तू रहे न तू ।
थी यही तो इश्क़ की जुस्तजूं,
मैं रहा न मैं और तू रहा न तू ।
' रवीन्द्र '
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