नटनी ने नट की,
नृत्य कराया है,
जीवन की वली ने,
कितना रुलाया है ।
जन्मों का अभेद्य,
दुर्ग बना पाया है,
सुदर्शन से चक्र से,
पार कौन पाया है ।
श्रृंगार आवरण में,
मुख रूप छुपाया है,
रसराज छवि को,
उर प्रान्त बसाया है ।
मुरली की धुन पर,
रास रचाया है
लाज का पहरा,
सुवास ने हटाया है ।
इन नैनों में आज,
कुछ ना समाया है,
चित्तचोर के तन से,
काज़ल जो चुराया है ।
' रवीन्द्र '
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