Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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केदार

 

ईश्वर और जीव,
दोनों अविनाशी,
इतना भेद,
एक स्रृष्टा,
दूजा सृष्टि,
नियति समेत ।

 

 

जीव को होती,
नित्य प्रतीति,
प्रस्तर में ईश की,
काल के कुण्ड में,
दे रहा आहुति
भावना आवेश की ।

 

 

भावशून्य,
निर्जीव,
अनेक रूप,
विभिन्न प्रकार,
उनमें से एक,
कामप्रद,
कल्पतरु,
देव केदार ।

 

 

आस्था का आवेग,
भावों का सैलाब,
निपट आस्तिक,
जग का व्यवहार,
खोलते कैसे,
कर्मों के बंधन,
श्रद्धा के धागे,
मुक्ति के द्वार ।

 

 

निर्जीव, निर्मम,
काल कूट,
महाकाल,
भुजंग जूट,
चर्माम्बरी,
सर्पमाल,
नीलकंठ,
मुण्डमाल ।

 

 

निर्वैर सदा,
निराकार,
लिपट हस्त,
अहि अनेक,
निर्विकार,
तुम अनिकेत,
चिपटते नहीं,
आस्था के प्रेत ।

 

 

हर हर महादेव,
जय ओंकार,
जयति जयति,
शिव केदार ।

 

 

सादर शिव हरि प्रेरित,

 

 

 

' रवीन्द्र ',

 

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