ईश्वर और जीव,
दोनों अविनाशी,
इतना भेद,
एक स्रृष्टा,
दूजा सृष्टि,
नियति समेत ।
जीव को होती,
नित्य प्रतीति,
प्रस्तर में ईश की,
काल के कुण्ड में,
दे रहा आहुति
भावना आवेश की ।
भावशून्य,
निर्जीव,
अनेक रूप,
विभिन्न प्रकार,
उनमें से एक,
कामप्रद,
कल्पतरु,
देव केदार ।
आस्था का आवेग,
भावों का सैलाब,
निपट आस्तिक,
जग का व्यवहार,
खोलते कैसे,
कर्मों के बंधन,
श्रद्धा के धागे,
मुक्ति के द्वार ।
निर्जीव, निर्मम,
काल कूट,
महाकाल,
भुजंग जूट,
चर्माम्बरी,
सर्पमाल,
नीलकंठ,
मुण्डमाल ।
निर्वैर सदा,
निराकार,
लिपट हस्त,
अहि अनेक,
निर्विकार,
तुम अनिकेत,
चिपटते नहीं,
आस्था के प्रेत ।
हर हर महादेव,
जय ओंकार,
जयति जयति,
शिव केदार ।
सादर शिव हरि प्रेरित,
' रवीन्द्र ',
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