Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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ख़्वाब

 

निकल कर वहाँ से, जहाँ ख़्वाबगाह है मेरी,
ख़ार के सायों भरी, देखा है कि राह है मेरी ।

 

 

अहले -वफ़ा है ख्वाब, वफ़ा की है अब तक,
छुपी ज़माने के लिए, ख़्वाबों में ईज़ा है मेरी ।

 

 

मैं भूल भी जाऊँ तो, क्या ये मुझे जीने देगें,
रज़ामंद हूँ हाथ इनके, डोर ज़िन्दगी है मेरी ।

 

 

मौला इन ख़्वाबों की, मेरे हिफाज़त करना,
वा-बस्ता इन ख़्वाबों के, हर इबादत है मेरी ।

 

 

गौर करना मेरे ख़्वाब, तेरे इशारे पे चलते हैं,
ख़्वाबगाह भी बंदिश में, ख़्वाब इन्शा है तेरी ।

 

 

खैरियत इन ख़्वाबों की, अब तेरा इख़्तियार,
ये ऐतबार है मुझको, इनपे भी है इनायत तेरी ।

 

 

 

' रवीन्द्र '

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