धीरे से बहुत, लबों को खोला है,
सब्र अश्कों का, टूट के बोला है ।
समंदर दूर तक, ग़मो-तन्हाई का,
राज ज़माने ने , कब ये खोला है ।
ज़िन्दगी कहते हैं, इम्तिहां लेती है,
किसका नहीं यहाँ, ईमान डोला है ।
लोग समझते हैं , ग़ाफ़िल हुआ है,
सच सफ़र का , एक हिचकोला है ।
तपिश -ए-सेहरा, सुकूँ -ए-ज़न्नत,
जिया है वही , जो चला मझोला है ।
पहुँचे हैं वहाँ तक, जहाँ से चले थे,
हुआ जो हासिल, सिफ़र सलोना है ।
इक़रार करना , गुनाहों का अपने,
तारीक डगर पे, रोशनी का गोला है ।
अंजान हमसफ़र से, पहचान हुई है,
तमन्ना से खाली , भरा ये झोला है ।
रखना है उसको, जमीने -जिगर में,
अश्क़बार हो के, गम को डुबोना है ।
बहुत मुश्तक़िल, ख़्यालात शायद,
तभी लफ़्ज़ों ने, हाफ़िज़ टटोला है ।
हमख़्याल बनाना, है मेरा मक़सद,
गम दिया तो, मक़सद को खोना है ।
' रवीन्द्र '
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