अपनों से खुद दूर हो के, महबूब वो रोया नहीं,
अहसास रुखसत का, पलकों को भिगोया नहीं ।
वो बड़ा फनकार था, तक़दीर पे हक़ था मेरी,
कायदा था खेल का, तभी तो कुछ बताया नहीं ।
शबे - ग़फलत गुज़र गयी , बदले कलेवर कईं,
सहर तो हो गई पर , हुआ इल्म का सवेरा नहीं ।
हसरत मेरी रही बरक़रार, फिर से मिलने की,
मैला मगर दामन मेरा, अश्क़ों में डुबोया नहीं ।
अंजुमन उसकी उलफ़त की, ग़मों से थी खाली,
पा लिया जिसने उसे, वो फिर कभी खोया नहीं ।
वफ़ा का आलम वहाँ, ज़फा का न नामो-निशां,
खताओं से किसी ने,दिल को कभी लगाया नहीं ।
हर रोज उसने दी सदां, हर लम्हा वो साथ मेरे,
कहा जो एक बार अपना, तो फिर भुलाया नहीं ।
सृजन है खेल उसका, हक़ खेलने का है हासिल,
मुतमईन मैं इस बात से, खेल में कुछ बुरा नहीं ।
कहा था अलविदा उसने, इक रोज़ खेल में 'रवि',
ख़बर है उस रात से , खुदा मेरा फिर सोया नहीं ।
' रवीन्द्र '
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