यूँ तो ख़्वाब मुझे आता ही नहीं,
आता है तो मैं सोता ही नहीं ।
ख़्वाब तो होते हैं,परे हकीकत से,
मेरी फ़ितरत, करना यकीं सच पे,
न लगाये पँख अपने अरमानों को,
जमीं से जुदा कभी होता ही नहीं ।
यूँ तो ख़्वाब मुझे आता ही नहीं,
आता है तो मैं सोता ही नहीं ।
बरसों पहले एक ख़्वाब देखा था,
जमीने-दर्द को किसी ने जोता था,
एक टीस सी उठी थी तब दिल में,
आह निकली थी बिसराता ही नहीं ।
यूँ तो ख़्वाब मुझे आता ही नहीं,
आता है तो मैं सोता ही नहीं ।
ख़ाक हुए सब आह से जल कर,
ख़्वाब उठते ही नहीं तसव्वुर में,
बीज गिरा था कभी मुहब्बत का,
भूले से कब, याद आता ही नहीं ।
यूँ तो ख़्वाब मुझे आता ही नहीं,
आता है तो मैं सोता ही नहीं ।
सींचा था अदाये - फ़र्ज़ समझ के,
फूटे अंकुर उस बीजे- मुहब्बत से,
महकाने लगे वो इस गुलशन को,
शाद हुआ, दिल डुबाता ही नहीं ।
यूँ तो ख़्वाब मुझे आता ही नहीं,
आता है तो मैं सोता ही नहीं ।
देखता हूँ हर सुबह ख़्वाब वही,
जीने का मज़ा, ख़्वाबों में नहीं,
बीज मुहब्बत का बोना ही सही,
कुछ और समझ में आता ही नहीं ।
यूँ तो ख़्वाब मुझे आता ही नहीं,
आता है तो मैं सोता ही नहीं ।
' रवीन्द्र '
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