कोने से ढलके हैं उन छलकी आँखों के,
बेबसी के आँसू हैं किसी का कहर नहीं ।
तरक्की कौम की है कुदरत के दम से,
बे-परवाह निज़ाम से कोई गिला नहीं ।
मौसम का मिजाज़ है मेहमाँ की तरह,
इन्तेज़ामात की तेरे कभी परवाह नहीं ।
क़तरा क़तरा करते रहे किनारा जिनसे,
हश्र फर्ज़चोरी का, ख़ता कुदरत की नहीं।
तू नहीं है कहीं, ये होगा उनको यकीन,
औरों के यकीं पे मुझे आता ऐतबार नहीं ।
' रवीन्द्र '
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