क्या होता जो यूँ होता,
मुख श्रृंगार जुगनू से करते,
चंदा माथे का टीका होता,
निशा नवेली दुल्हन बनती,
दिनकर उसका दूल्हा होता ।
.... क्या होता जो यूँ होता ।
तारा गण सब होते बाराती,
अरुणोदय शुभ मुहूर्त होता,
दूल्हा सजके आता घूँघट में,
ना दर्श निशा का वो पाता ।
.... क्या होता जो यूँ होता ।
पल भर में रस्में हो जाती,
निशा कहीं फिर खो जाती,
सूरज उसको ढूँढा करता,
साँझ तलक वो थक जाता ।
.... क्या होता जो यूँ होता ।
दिन गए निशा निकलती,
तब तक सूरज सो जाता,
विरह-मिलन का चक्र यहाँ,
समझ सभी को आ जाता ।
.... क्या होता जो यूँ होता ।
' रवीन्द्र '
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