ममता का जो आँचल छूटा,
साया फिर दिखा न प्यारा,
तुमसा मैंने इस जग में ढूंढा,
मिला ना कोई मैं थक हारा ।
मिटिया की ये सारी काया,
रोम रोम में बसी है माया,
अन्तर्मन में भाव जो सच्चे,
अंश तुम्हारे उर भर पाया ।
तुमने इस पौधे को सहलाया,
आँसू पी कर पयपान कराया,
धरती माँ पर बोझ न बनना,
माँ तुमने मुझको सिखलाया ।
फ़र्ज़ निभाना औ' दर्द छुपाना,
जो दंश मिलें तो सहते जाना,
देखा है मैंने छुप छुप कर तेरा,
झूठा हँसना यूँ हीं मुस्काना ।
दर्द मिले तो तू याद आती है,
अब भी जीना सिखलाती है,
तेरी यादों के दम से मेरी ,
हरेक मुश्किल मिट जाती है ।
क्या मैं तुझको दे पाया हूँ,
किस्मत ऐसे ही भरमाती है,
अब तक भी इन यादों में तू,
जब आती है कुछ दे जाती है ।
' रवीन्द्र '
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