पीते है महफ़िल में ,
यहाँ लोग सभी,
मय और जाम मग़र,
है जुदा फिर भी ।
रंगीली इस दुनिया में ,
यूँ तो दीवाने हैं सभी ,
अंदाज़े-परवाना मग़र ,
है जुदा फिर भी ।
चढ़ता है नशा ,
हर रोज़ वही ,
सबब पीने का मग़र,
है जुदा फिर भी ।
दिल का लगाना ,
या जलाना है कभी,
मज़ा दोनों का
है जुदा फिर भी ।
वो पिला देते हमें ,
हम पी लेते कभी,
वजह दोनों की नहीं,
है जुदा फिर भी ।
वो मरते मुझ पर,
या मैं उन पे गिरी,
अंजाम मुहब्बत का,
है जुदा फिर भी।
हमने देखा है यहाँ,
मर मिटने का जुनूँ ,
जोशे-मयकश असल,
है जुदा फिर भी।
कुछ पीते हैं सुबह,
कुछ शब को सही ,
मक़सद और नशा ,
है जुदा फिर भी ।
कुछ पाते हैं यहाँ,
न पीने का सरूर,
वज़ह कुछ जीने की ,
है जुदा उन की ।
पीते हैं महफ़िल में ,
या बज़्म में कभी,
लुत्फ़ पीने का मग़र,
है जुदा फिर भी ।
भरा मिला है प्याला,
साकी भरती है कभी,
नशा पीने का मग़र ,
है जुदा फिर भी ।
हाले-दिल शायरी भी,
लगती दवा सी कभी,
असर मुहब्बत का मग़र,
है जुदा फिर भी ।
पीते खुश होने पर,
ग़म भुलाने को कभी,
मिजाज़ खुशनसीबों का,
है जुदा फिर भी ।
नग्में हों या ग़ज़ल,
छलकें जिगर से सभी,
फ़र्क सुनाने का मगर,
है जुदा फिर भी ।
गहरे अहसास दिए,
या पहरे पास किये,
दर्द दोनों का मग़र ,
है जुदा फिर भी ।
पीते रहते वो ग़म ,
गिला न फरियाद कभी,
दम संत फकीरी का,
है जुदा फिर भी ।
ख़्वाहिशें फ़र्ज़ पे भारी,
ज़फा महबूब से की ,
प्यास पाने की वफ़ा ,
है जुदा फिर भी ।
फ़िराक साहिर भी पिए,
जिंदादिली उम्र भर की,
जाहिरा ग़ालिब की मग़र,
है जुदा फिर भी ।
जिंदगी लगे क़ैद सी,
मौत राहे-वस्ल है कभी,
फ़र्क समझने का मग़र,
है जुदा फिर भी ।
हासिले-मंजिल पे पी ,
तो दरम्याँ सफ़र कभी,
सिला सब्र का मग़र ,
है जुदा फिर भी ।
आये जो भी यहाँ,
झूमें हैं कभी न कभी,
मय और जाम मगर,
है जुदा फिर भी ।
' रवीन्द्र '
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