मुमकिन ही नहीं तुझ पे कविता करना , जैसे मुश्किल हो खुद से तनहा रहना .
तेरी तारीफ या कि अपनी नादानियों का जिक्र , कैसे कहूँ कि न की अब तक तेरी फिक्र.
तूने छोड़ी फिक्र अपनों कि मुझे अपना के , न समझा तुझे अब तक भी मान इतना पा के.
सहा सब कुछ तूने अपना फ़र्ज़ निभाने को, मैं क़र्ज़ अपने चुकता रहा बोझ तुझ पे बढ़ा के.
अब और न कर अफ़सोस क्योंकि, ये कष्टों कि आखिरी डगर है ,
कुछ और बरस सह ले क्योंकि, फिर खुशियों की लम्बी पहर है.
तेरी कुर्बानियों का जिक्र तुझे अच्छा ना लगेगा ,
तेरी अच्छाइयों का अहसास अब मेरा हौसला बनेगा.
रवीन्द्र
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY