काश कुछ इस तरह, फिर मिरी जुबाँ फिसले,
तल्खियों के दरमियाँ बस तेरा जिक्र निकले ।
बहारों से भरी फिजाँ, महकती रहे इस तरह,
ख़त्म हो खलिश सारी, खिजाँ का दम निकले।
ग़ज़ल हो परस्तिश की, इल्म और मुहब्बत की,
लब हिलें जब कभी , वही मिरी जुबाँ निकले।
दरिया -ए- तकलीफ़, दिल पिए कुछ इस तरह,
दर्द के चर्खे- भँवर से, साहिल कोई सुकूँ निकले ।
इन्तेहाँ हो इंतज़ार की, बेताब न हो दिल मेरा,
इस इन्तेज़ारे दौर से, शायद नयी डगर निकले ।
काश कुछ इस तरह, फिर मिरी जुबाँ फिसले,
दरमियाँ दुश्मनों के, दोस्ती का सबब निकले ।
' रवीन्द्र '
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