दर्द को दिल में दबाने का बहाना ना हो,
ख़त- ओ- क़िताबत का ये ज़माना तो हो ।
बेबाक़ लेखन का अज़ब सा सलीका ना हो,
दिले- जज़्बात कहने का कोई तरीका तो हो ।
अहले-अहबाब से वाकअ मुख़ातिब ना हो,
बात कहने की अहले-दिल मुनासिब तो हो ।
पसंद से ग़र कभी किसी ने नवाज़ा ना हो,
इन्सानियत का फिर भी ये तकाज़ा तो हो ।
ना कहेंगें गर ज़माने को जरा फ़ायदा ना हो,
बात मतलब की मगर उसे ज़ायका तो हो ।
अफ़सोस का कोई इसमें अफ़साना ना हो,
ख्याल बेशक पुराना, मगर प्यारा तो हो ।
ख्य़ाल खूबसूरत अब कोई रायगाँ न हो,
इस मुखपृष्ठ का इतना सा फ़ायदा तो हो ।
' रवीन्द्र '
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