बातें महज़ ज़ुबानी हुईं ,
रोज़ नयी ये कहानी हुई,
गुजरी हुई जवानी हुई,
नैतिकता अब पुरानी हुई ।
सियासत की हमनशीं,
उसी के दिल की रानी,
रहती उसी के आसरे,
नौकरशाही सयानी हुई ।
जवान है , ये मुहब्बत,
जनादेश की है ख़िदमत,
सिर्फ़ नेताओं से वफ़ा,
सेवाओं की निशानी हुई ।
दागी न हो मेरा दामन,
पद और पग्ग की आबरु,
समाज की ये सोच भी,
किस्सा और कहानी हुई ।
जनतंत्र में जन है परेशां,
बढ़ रहा क़र्ज़ का बोझा,
आमदनी तो ज्यों चाँद,
घटते की निशानी हुई ।
उम्मीद तो हुई दामिनी,
तड़पती हुई सी विरहणी,
दामन कोई तो थाम ले,
खुद आस में दीवानी हुई ।
स्वराज हक़ है, जन्मसिद्ध,
क्या नहीं बात बेमानी हुई,
नैतिकता फिर क्यों आज,
हाकिमों की मेहरबानी हुई।
'रवीन्द्र'
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