ज़िंदगी ग़र, है तुम्हें आना,
लेने को साँस, हवा लाना,
चार दिन का आबो- दाना,
है इनायत, तुम दुआ लाना ।
कुछ ग़म नये और ग़ुरबत,
तन्हाई में तुम और फ़ुर्सत,
भीगे हो यादों में वो लम्हें,
धूनी का उनमें धुआं लाना ।
आहट से बढ़ती है धड़कन,
फिर लौट आता है बचपन,
तक़दीर के सब बचे सफ़हे,
आमाल का तुम जहां लाना ।
ख्वाब ना अहसासे-हासिल,
ना साथ अपने अना लाना,
सोच लो ग़र है तुम्हें आना,
इस बार पड़े ना पछताना,
देना ही होगा ये नज़राना,
है मुसाफिर को घर जाना ।
' रवीन्द्र ',
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