यहाँ रोज़ मिलें ना, मिलने के मौके,
वो हर रोज़ पुकारे, पर रोज़ है रोके ।
फ़ुर्क़त में पाया, चिलमन को धो के,
रुखसत सब कुछ, कुछ लम्हा हो के ।
नज़र में हर सूं , इस जिगर के टोटे,
एक राह बुहारी, पर अब कोई रोके ।
नासाज़ तबियत औ' मिट्टी को ढ़ोके,
अब मिलना क्या, इस मंज़र पे रोके ।
बेकार नसीहत औ' उलफ़त के धोख़े,
मैं क्या न पाया, बस तुम को खोके ।
' रवीन्द्र '
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