अमावस कार्तिक की कैसी आती,
मदिर मलय मंद मधुर मुसकाती,
कोमल काली कज़रीली आँखों से,
नभ से निशा निर्मल नूर बरसाती ।
यान केतु से मेरे आँगन के,
आतिश हो कर उड़ते जाते,
प्रस्फुटित हो नभ आँगन में,
अद्भुत देखो छटा दिखलाते ।
बीच गगन वो जब छिटके,
अर्धनिशा में सूरज से उगते,
कण कण में विघटित हो के,
लाखों जुगनू जग मग करते ।
ध्वनि पूर्वध्वनि जब मिलती,
सुरमय लय की सृष्टि करती,
धर्म उदय का नाद वो करती,
नव आशाऐं उर संचन करती ।
अवनि आलोकित अंबर आतिश,
अमावस्य पर्व की प्रथा निराली,
अन्तर प्रदेश के कोने कोने तक,
दीप जलाके नूर फैलाती दीवाली ।
" रवीन्द्र "
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