Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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परवाज़

 

पत्थर भी पिघले यहाँ, अश्क के ढ़लने से,
अज़ीज़ बन गये सभी , जिगर में उतरने से ।

 

साज़े - दिल पुर जवाँ, रहा तेरी निगाह में ,
बिखर हुऐ से राग रंग, नज़र के उतरने से ।

 

परेशां हुआ इश्क़ में, आईना-ए-दिल कहीं,
सुकूँ मिला है अभी , अक़्स तेरा उभरने से ।

 

मशवरे कुछ कर लिए, पीर वाइज़ के यहाँ,
आसां हुई है ज़िंदगी, रुख तेरा समझने से ।

 

उम्र एक गुज़री मग़र, ख़्वाब ना समझ आया,
बेदार हो रहा हूँ इसी, अहसास के गुज़रने से ।

 

रिश्ता उड़ान से मेरा, ब-निस्बत तेरे इश्क़ है,
परवाज़ होती कम नहीं, पँख मेरे कतरने से ।

 

फ़ुरसत ज़रा मिले अग़र, दीदार दिल में देना,
बुझते हुए हैं दिये यहाँ, फ़िराख में तड़पने से ।

 

 

( फ़िराख = सेपरेशन, जुदाई ; निस्बत = लगाव, कनेक्शन )

 

 

 

' रवीन्द्र '

 

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