मैं पुरुष हूँ ,
तुम स्त्री हो,
क्या यह सत्य है,
अथवा तुम पुरुष
और मैं स्त्री,
यह सत्य है ?
मैं शरीर हूँ ,
यदि यह सत्य है
तो मैं पुरुष
किन्तु तब तो
तुम भी शरीर हो,
यानि तुम भी पुरुष
और यदि,
मैं आत्मा हूँ
तो मैं स्त्री हुआ
और तुम भी स्त्री.
यह तो आश्चर्य है,
लेकिन कुछ तो फ़र्क है,
मुझ में और तुम में,
फिर वो फ़र्क क्या है ?
अच्छा देखो इस तरह
कि शरीर जड़ है,
अतः पुरुष है,
आत्मा चेतन है
अतः ये भी पुरुष.
यानि जड़ और चेतन
दोनों ही पुरुष.
फिर से उलझन है,
क्या है ये फर्क ?
अच्छा फिर देखते हैं,
शरीर जड़ है,
अर्थात माया है,
अतः स्त्री हुआ,
आत्मा शक्ति है,
अतः स्त्री हुई,
यानि दोनों स्त्री,
फिर समस्या है,
आखिर फ़र्क क्या है ?
एक प्रयास और करते हैं,
शरीर जड़ है,
यानि माया है,
क्योंकि उत्पन्न हुआ है
प्रकृति से,
चेतनता शक्ति है
आत्मा की,
जो उत्पन्न हुई है
परमात्मा से
और प्रकृति भी तो
उत्पन्न हुई है,
परमात्मा से.
यानि दोनों ही हैं
अंश परमात्मा के,
प्रश्न फिर भी वही है,
आखिर अंतर क्या है ?
प्रकृति फैली है
अनंत में,
प्रसार पाती है पुनः
अनंत में.
उत्पन्न करती है
परमात्म तत्त्व को
फैलने के लिए
ब्रह्माण्ड में,
सृजन करती है
जड़ से जड़ का
अंश पा कर
चेतन का.
धीरज धर के
पोषित करती है
परमात्म तत्त्व को
और उत्पन्न करती है
नया जीव
मिश्रण है जो
जड़ और चेतन का
स्त्री और पुरुष का
परम अंश
सच्चिदानंद का.
इसलिए मैं
केवल पुरुष हूँ,
कर सकता हूँ तुम्हें
समाहित स्वयं में
प्रकृति है जैसे
परम पुरुष के
आगोश में.
कर सकता नहीं
प्रसार जीवन का
स्वयं के अंश का,
पुरुष के संकल्प का.
मेरा उत्कर्ष
अधीन तुम्हारे,
ध्येय अधूरा
बिन तुम्हारे.
तुम अजेय,
अनंत हैं
रूप तुम्हारे,
मातृशक्ति जग
तुम्हें स्वीकारे,
जय जगदम्बे
जय माँ पुकारे.
रवीन्द्र
मुंबई
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