अक़सर ये दिल, तब टूटता है,
राबता रब से, जब छूटता है ।
मुफ़ीद लगती , सदा ज़माने की,
आवाज़ दिल की, कहाँ पूछता है ।
तेरी रज़ा में, इस दिल की रज़ा,
चाहत तेरी है, ये कब रोकता है ।
दिल जानता है, रब की रज़ा भी,
हौले से मगर ये, तुझे टोकता है ।
यक़ीनन रहेगी, निस्बत ये रब की,
आसमां जमीं को, कहाँ छोड़ता है ।
अक़सर ये दिल, तब टूटता है,
राबता रब से, जब छूटता है ।
' रवीन्द्र '
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY