खिला हर वो अंग मिला, भरा जिसमें रंग तेरा,
तू मुसव्विर रहा वही, तस्वीर सब में है रंग तेरा ।
ना है ये खुद से कलामी, हम में हो रही है गुफ़्तगू,
सामने जो तू नहीं तो क्या, सजा सामने है रंग तेरा ।
तू नुमाया है हर इश्क़ में, हद में रहा मैं अफ़कार की,
हुआ तसव्वुर का ना दायरा, ना दीदे- चश्म है रंग तेरा ।
आरज़ू-ए-दाग़ अब हो रही, तो दामन भर दे तू मेरा,
दाग़ में है दिखता मुझे, बसा जो क़तरा-ए-रंग तेरा ।
बदरंग यहाँ हर एक रूह है, वो देख रहे बदल कर शक्लें,
हर शहर, वतन -ओ- दहर में, कहते हैं न बदले रंग तेरा ।
शामत इस बेचैन रूह की, एक न एक दिन तो आयेगी,
तू चीर देना चादर तभी , देखूँ कि क्या है रंग तेरा ।
' रवीन्द्र '
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