अब आ भी जाओ, दर-ए-तकदीर खोलने को,
जर्रा जर्रा -ए- वतन, बे-ताब कदम चूमने को ।
अश्क़ बन के आओ, तुम अांखों में बस जाओ,
बेचैन दिल का चमन, आबशारों में झूमने को ।
पर्दा -नशीं हो तुम तो , तो परदा ही मुझे बना लो,
लम्हों से ना गुजारिश, पट-ए-चिलमन खोलने को ।
मयकशी भी मैं करुंगा, तुम साकी बन के आओ,
इल्तिजा किया करेगी, ये मयकदा भी डोलने को ।
पहरे में इश्क़ कितना, तुम भी ये अब जान लो,
निकले नजर बचा के, इन पहरों को तोड़ने को ।
छुप छुप चला यूँ चांद, स्याह बदरिया में रात की,
रुह से ज्यूँ उभरे गजल, जख्म-ए-दिल घोलने को ।
एक लूक सी गिरेगी, ग़र ख़फा कहीं हो जाओ,
ख़ाक में जा मिलूंगा, रिश्ता ये फिर जोड़ने को ।
' रवीन्द्र '
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