Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

रिश्ता

 

अब आ भी जाओ, दर-ए-तकदीर खोलने को,

जर्रा जर्रा -ए- वतन, बे-ताब कदम चूमने को ।

 

 

अश्क़ बन के आओ, तुम अांखों में बस जाओ,
बेचैन दिल का चमन, आबशारों में झूमने को ।

 



पर्दा -नशीं हो तुम तो , तो परदा ही मुझे बना लो,
लम्हों से ना गुजारिश, पट-ए-चिलमन खोलने को ।

 



मयकशी भी मैं करुंगा, तुम साकी बन के आओ,
इल्तिजा किया करेगी, ये मयकदा भी डोलने को ।

 



पहरे में इश्क़ कितना, तुम भी ये अब जान लो,
निकले नजर बचा के, इन पहरों को तोड़ने को ।

 



छुप छुप चला यूँ चांद, स्याह बदरिया में रात की,
रुह से ज्यूँ उभरे गजल, जख्म-ए-दिल घोलने को ।

 



एक लूक सी गिरेगी, ग़र ख़फा कहीं हो जाओ,
ख़ाक में जा मिलूंगा, रिश्ता ये फिर जोड़ने को ।

 



' रवीन्द्र '

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ