हर गुलशन है, बे- क़रार,
फिज़ां को मैं महकाता हूँ,
हर कली मुंतज़िर-ए-साज़,
भँवरे की तरह मैं आता हूँ ।
न फ़र्क गुंजा-ओ-गुल में,
हर किस्म को मैं भाता हूँ,
करता हर गली का फेरा,
हर चमन को सजाता हूँ ।
बाहर अंदर का भेद नहीं,
तन और मन हर्षाता हूँ,
तेरे मन की रूप मंजरी,
को भी चाँद लगाता हूँ ।
दूर करूँ मैं ख़लिश खिजां,
उर का कलुष मिटाता हूँ,
मैं बसंत ऋतुओं का राजा,
फिर राज प्रेम का लाता हूँ ।
' रवीन्द्र '
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