इस जग में जननी बन आती,
रिद्धि सिद्धी सुख संपदा लाती,
शुभ संकल्प परम चैतन्य का,
सकल शांति और वैभव लाती ।
चेतन ही के अंशों से निर्मित,
चेतन हूँ लगती जड़ भासी,
प्राकृत अंशों से नहीं मोहित,
चेतन-अंश को उपजाने आती ।
कारण से मैं रूप बदलती ,
रूपमती से कुब्जा बन जाती,
ज़ब्र करे जो नर कोई मुझसे ,
दुख विपदा को ले कर आती ।
सौंदर्य प्रभा दया और ममता,
ये रूप मेरे सब के हितकारी ,
बलात करे ग़र तामसकारी ,
भुगते दुःख व्याधि महामारी ।
दुर्गा क्षमा शिवा उमा धात्री ,
आभा निशा मंजु साँझ मंजरी,
वीणा वाणी व विभा मैयत्री ,
सुन्दरता से सब साज़ सजाती ।
परम हितैषी मैं प्रभु की दासी,
हरि चिंतन से अनुकूल सुहाती,
राघव माधव ही मालिक मेरे,
इच्छा उनकी जो मैं जग आती ।
चेतन हत कर मंदिर मैं पूजा ,
ढ़ोंग नहीं कोई बढ़ कर दूजा ,
तेरा क्या जो मैं ले कर जाती,
मंदिर में दीपशिखा बन जाती ।
पावन पाते हैं मेरा सु-आगमन,
बंद करो न मेरा मार्ग सनातन,
निश्चित हो हर उर उजियारा,
रहे न अब कोई कोख हत्यारा ।
' रवीन्द्र '
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