क्यूँ ये लहरें बादलों से जलतीं है,
अंश उसी का लेके हवा चलती है,
सँजो के गोद अपनी वो विचरती है,
अपने हिस्से का ये सफ़र करती है ।
अमानत है तेरी आएगी तुझी तक,
घटा बन वो बादल से बरसती है,
पी चुकी ज़हर नमक का जमीं से,
तरफ़ तेरी अब वो नज़र करती है ।
' रवीन्द्र '
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