बूंद बरसी बादल से,
गिरी किसी गिर कानन में.
बहकी सी बही बनस्थल,
जा मिली सरोवर के जल में.
ठौर मिला, ठहराव मिला,
जैसे जीवन का छोर मिला.
मस्त हुई संग मीन मिला,
रंग ही गयी जल के रंग में.
जीवन जैसे एक सपना सा,
सब कुछ मानो अपना सा.
हुऐ मनोरथ पूरे सब,
अहम् समाया चेतन मन में.
कुछ क्षण का था यह सुख,
नियति में था दुख ही दुख.
उलीची गयी कुछ ही पल में,
फिर भटकी अवनि थल में.
मिली धार कुछ क्लेश घटा,
बहते जीवन का वेग बढ़ा.
बूँद बूँद से जो टकराई,
फिर द्वेष बढ़ा अवचेतन में.
द्वेष बढ़ा मन खिन्न हुआ,
जीवन में जैसे अघ मान बढ़ा.
कष्टों का मानों बोझ बढ़ा,
धूमिल आशाऐं बोझिल मन में.
टकराई बूँद किनारों से,
धारे में पड़े पाषाणों से.
मिलते ही किनारा छूट गया,
विघ्न पड़ा मुक्ति मग में.
याद किया सुख सागर को,
अनंत अपार जल राशि को.
गहरी गहराई में रहती थी,
कितना सुख था उस मंजर में.
क्यों उतरी उस गहराई से,
क्यों ललचाई सतहाई से.
क्यों अम्बर चमका आँखों में,
अब अंक मिला रश्मिरथ में.
उड़ जो चली उस रथ में,
मिले सखा कुछ उस पथ में.
फिर बहकी अम्बुद संग में,
बहती ही गई उस के रंग में.
इन कष्टों का अंत कहाँ है,
इस प्रवाह का छोर किधर है.
क्या यह दुख: निरन्तर है,
क्या बहते रहना ही जीवन है.
प्रश्न उठे तो ज्ञान बढ़ा,
जड़ चेतन का भान हुआ.
आलोक हुआ, फिर प्रेम जगा,
जली ज्योति अंतर उर में.
सहम गई जो वेग घटा,
सिन्धु गर्जन का शोर बढ़ा.
हर्षाई कुछ अपना सा लगा,
उमंग समाई रग रग में.
नियति मिली नित प्रेम मिला,
जो सागर से सन मान मिला.
अब गहराई ना छूटेगी,
मिली अनंत सुख राशि में.
'रवीन्द्र'
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