तन्हाईयों में अपनी, शामिल समझा है,
मुश्तक़िल तुझे औ' क़ामिल समझा है ।
सिला भी सवाबों का, देता है उलझन,
सराबों को उनका , हासिल समझा है ।
ये जहाँ है तुम्हारा, दख़ल ना मेरा जरा,
बशर दर बशर तुम्हें, दाख़िल समझा है ।
फ़ितरत है उनकी, ग़फ़लत को धोना,
हैरां हूँ हमको मगर, ग़ाफ़िल समझा है ।
तू माज़ी मेरा है, और मुस्तक़बिल भी,
मुसलसल सफ़र का, साहिल समझा है ।
' रवीन्द्र '
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY