साँझ की, है ये हया,
रवायतों के हैं दायरे,
ज़िन्दगी को दे दिशा,
कोई तो आके थाम ले ।
हरकतों पे सवाल हैं,
पहरों में ये ख़याल हैं,
सबब है गर अब कोई,
ज़िन्दगी को जवाब दे ।
सुबह थी,शबनम भरी,
ना कोई , ख़बर लगी,
पहली पहर, सहर हुई,
गुजर गयी खुमार में ।
पहर दूसरी , तब हुई,
शोहरतों की तलब हुई,
जीन्द इक ग़ज़ल हुई,
नगमों के बाजार में ।
हसरतें और ख़्वाब थे,
ख़याल भी, साथ थे,
कुछ पले या जल गये,
हक़ीक़तों की आग में ।
हिज़्र यहाँ ब-हरहाल है,
दिलों में भी , मलाल है,
कह रहीं हैं, सिसकियाँ,
गम ना कर, संसार में ।
गा रही हैं , धड़कनें,
विरह के नये राग में,
जल सकेगी क्या शमा,
थी जो , इख़्तियार में ।
आस की हैं, बदलियाँ,
बे-रंग सारी तितलियाँ,
गुजर गयीं हैं शोखियाँ,
मिले न अब, उधार में ।
हवा ये कैसी बह रही,
हक़ से ये, बहक रही,
है फ़र्ज़ की महक यहाँ,
किसी के इन्तेज़ार में ।
साँझ ढ़ल रही , है मिरी,
इस आस के आगाज़ से,
अब तो शायद, जा मिले,
मेरी शब किसी बहार से ।
न रवायतों का खौफ़ हो,
ना हया का हो , दायरा,
मिल सकेगी, वहाँ ख़ुशी,
महज़ तेरे एक ख़्याल से ।
' रवीन्द्र '
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