करते हैं जिस पे,
वो जाँ तक निसार,
चाहत का मारा,
है ये सारा संसार ।
कहने को इसमें,
नहीं कोई सार,
चाहें फिर भी वो,
रखना इख़्तियार ।
समझे ना मतलब,
समझायें तजुर्बेकार,
मालिक है इसका,
मुहब्बत का निगार ।
होता न सच मुच,
वफ़ा का इज़हार,
मरते है गिर कर,
यूँ परवाने हज़ार ।
अमल में हो वफ़ा,
तो मिलता संसार,
थोड़ा सा हो सब्र,
और ज़रा इंतज़ार ।
चाहत बस उसकी,
जो मालिक संसार,
धीरे से आ जाये,
ग़र जीवन में प्यार ।
' रवीन्द्र '
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