सुबह सवेरे जब मैं जगता,
इत उत उसको ढूंढा करता,
नज़र कहीं ना तब वो आती,
कर्त्तव्य कर्म का बोध कराती,
नियत कर्म में जब मैं खोया,
मर्म धर्म का उसमे पाया,
उर अंतर को शीतल करके,
मनोहर सी संध्या बन जाती.
जीवन में नवरंगों को देखा,
स्यामल सब गोरों को देखा,
वस्त्रहीन धनिकों को देखा,
कालों के उजलों को देखा,
कुछ ज्ञानी पर अनपढ़ देखे,
संत कबीर और नानक देखे,
महागुरु सब निर्मल देखे,
कैसे कैसे सब अपने देखे,
नेत्रहीन कुछ द्रष्टा देखे,
सृष्टिहीन कुछ स्रष्टा देखे,
अन्धों कि बस्ती में अक्सर,
बिकते दर्पण व सुरमें देखे,
आवरण सभी उड़ा ले जाती,
वायु वेग प्रचंड बन जाती,
मैं डर जाता तो थम जाती,
शांत भाव धीरज बन जाती.
सबका अंतर दर्श कराती,
सब राजों के भेद बताती,
परम सत्य का भान कराती,
गौरी स्यामल फिर मुस्काती.
'रवीन्द्र'
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