तुम्हें देखता हूँ तो निगाहें झुक जाती हैं ,
समाज पे, तो कभी खुद पे शर्म आती है ।
संविधान तो इक क़वायद है कागज़ पर ,
अधिकारों में अब साज़िश की बू आती है ।
तन्हाई तो मुश्किल, हर हाल अब ज़ोखिम,
जिंदगी जननी की, अभिशाप बन जाती है ।
पुरुष प्रधान सारी सृष्टि, माँगे नूतन शक्ति,
स-शक्तिकरण की बात मज़ाक हो जाती है ।
सत्ताधीश हुए जो, आरक्षण-अस्त्र उठा कर ,
महिला उन्हें सिर्फ़ एक वोट नज़र आती है।
महिला दिवस तुम्हें दिखाने की हमदर्दी है ,
कोशिशों में असल, कमज़ोर नज़र आती है ।
तुम्हें देखता हूँ तो नम हो जाती हैं निगाहें ,
शक्ति की देवी, क्यूँ लाचार नज़र आती है ।
' रवीन्द्र '
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