तुमने शायद चिराग को, बुझते हुये नहीं देखा,
फड़फड़ा कर परिन्दे को, उड़ते हुए नहीं देखा ।
उसकी यादों के नूर से, लेखनी में रोशनाई है,
क़रीब के उस चिराग को, जलते हुए नहीं देखा ।
हरा हो कर अक़सर, ज़ख़्म आज भी रिसता है,
जीने के लिए बेक़रार को, भरते हुए नहीं देखा ।
हर साँस को कमाया है, संघर्ष की कीमत पर,
ज़िन्दगी को उस साँस से, डरते हुए नहीं देखा ।
मेरे दिल की रोशनी था, वो ख़ास अज़ीज मेरा,
तुमने अपने अज़ीज़ को , मरते हुए नहीं देखा ।
तुमने शायद चिराग को, बुझते हुये नहीं देखा,
फड़फड़ा कर परिन्दे को, उड़ते हुए नहीं देखा ।
' रवीन्द्र '
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