Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सिला सब्र का

 

 

पीते हैं महफ़िल में ,
या बज़्म में कभी,
लुत्फ़ पीने का मग़र,
है जुदा फिर भी ।

 

भरा मिला है प्याला,
साकी भरती है कभी,
नशा पीने का मग़र ,
है जुदा फिर भी ।

 

हाले-दिल शायर का,
लगता दवा सा कभी,
अंदाज़ कहने का मग़र,
है जुदा फिर भी ।

 

पीते खुश होने पर,
ग़म भुलाने को कभी,
मिजाज़ खुशनसीबों का,
है जुदा फिर भी ।

 

नग्में हों या ग़ज़ल,
छलकें जिगर से सभी,
असर सुनने का मगर,
है जुदा फिर भी ।

 

गहरे अहसास दिए,
या पहरे पास किये,
दर्द दोनों का मग़र ,
है जुदा फिर भी ।

 

पीते रहते वो ग़म ,
गिला न फरियाद कभी,
दम संत फकीरी का,
है जुदा फिर भी ।

 

ख़्वाहिशें फ़र्ज़ पे भारी,
ज़फा महबूब से कर दी,
प्यास पाने की सबकुछ,
है जुदा फिर भी ।

 

फ़िराक साहिर भी पिए,
जिंदादिली उम्र भर की,
जाहिरा ग़ालिब की मग़र,
है जुदा फिर भी ।

 

जिंदगी लगे क़ैद सी है,
मौत राहे-वस्ल है कभी,
फ़र्क समझने का मग़र,
है जुदा फिर भी ।

 

हासिले-मंजिल पे पी ,
तो दरम्याँ सफ़र कभी,
सिला सब्र का मग़र ,
है जुदा फिर भी ।

 

 

 

' रवीन्द्र '

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