दो कदम डगमगा चुके हैं, वक़्त अभी गिरने में है,
ज़ब्र एक जाम दे साक़ी, देर अभी शब ढ़लने में है ।
मयपरस्ती है फर्ज़ यहाँ, ग़ाफिल ना समझे वो मुझे,
सुरूर उसी का चढ़ा साक़ी, ख़ता जिसे बिसरने में है ।
' रवीन्द्र '
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दो कदम डगमगा चुके हैं, वक़्त अभी गिरने में है,
ज़ब्र एक जाम दे साक़ी, देर अभी शब ढ़लने में है ।
मयपरस्ती है फर्ज़ यहाँ, ग़ाफिल ना समझे वो मुझे,
सुरूर उसी का चढ़ा साक़ी, ख़ता जिसे बिसरने में है ।
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