कल्मष-पुंज के कदम तले,
स्वपन सभी गये कुचले,
यथार्थ की खुली झिरी से,
तब प्रश्न कुछ नये निकले।
धूप निकली किसके लिये,
चादर तनी क्यूँ छाँव लिये,
खिलती कली कभी रात में,
प्रभात प्रतीक्षित किस लिये।
दुःख ना कोई देता यहाँ,
फिर क्यूँ समंदर पीता यहाँ,
राज मर्म की है बात क्या,
स्पष्ट ना कोई कहता यहाँ।
वाद्य- यंत्रों की भिन्न तरंग,
हर राग का है अलग मौसम,
मात्र आवृत्ति का भेद है रंग,
जीवन है जीव का पुराप्रसंग।
हर शय का है अतीत अलग,
फिर भी नहीं है कोई विलग,
हर कोई जिस में बह रहा,
सभी में वो एक रह रहा ।
अनन्त प्रेम का है एक तार,
जैसा बोया बस वैसा विस्तार,
उद्भव अन्त जिससे हो रहा,
तत्त्व उदासीन फिर भी रहा।
स्वप्न धूमिल किये दूसरों के,
बिसरे हुये अतीत अपनों के,
दर्द बन के पहुँच रहे मुझ तक,
गुनाह हैं मेरे पिछले कलों के।
टीस दबी थी बेबस दिलों में,
टपकती कभी अश्क बन के,
कुंठित था द्वेष भाव रगों में,
निकलता मुख से आह बनके।
सूरज को माँगा अधिकार बिना,
उड़ने की चाहत आकाश बिना,
काल कर्म का प्रवाह अनवरत,
जीवन तो संग्राम विश्राम बिना।
जो जलता वो सूरज बनता,
स्वप्न सभी के पूरन करता,
सुरभित करने को धरा यौवन,
धर धीरज दर्द आर्णव बनता ।
चिन्तन सुकृत मात्र आरोहित,
स्वप्न स्वयं में तब अवघुलित,
चिंतन उसका चाहत उसकी,
कुँजी मुक्ति और राहत की ।
पथ प्रशस्त जब ऐसा मिले,
सत्य प्रकाश हिय से झलके,
जीवन को नूतन अर्थ मिले,
स्वप्न सा सुंदर यथार्थ मिले।
' रवीन्द्र '
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