Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

' स्वीकारोक्ति '

 

 

झूठ नहीं सच, मैं कहता हूँ,

तुम बिन ग़म, मैं सहता हूँ ।



ना बोलेंगें हम, कसम ली है,
हैं यादों के रेले, मैं बहता हूँ ।


मुक्ति नहीं है, साँसों से बंधन,
क़ैद की तड़पन, मैं सहता हूँ ।


तुम हकीकत, ये जहाँ फ़ानी,
यकीन से बहुत, मैं कहता हूँ ।

 

यार ये मेरा, है अय्यार बड़ा,
हू -ब- हू खड़ा, मैं रहता हूँ ।

 

जहाँ तुमने , पनाह ली है,
वहीं पर कहीं, मैं रहता हूँ ।

 

भीड़ हो भरी, या महफिल,
हर शाम तन्हा, मैं रहता हूँ ।

 

ना फ़िक्र मुझे, ना है हया,
रहनुमा तुझे, मैं कहता हूँ ।

 


'रवीन्द्र'

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ