मेज़बां हम सा, क्या कहीं पायेगी,
बे-वफ़ा होके, तड़प कहाँ जायेगी ।
मुक़र्रर है जगह, दिले - नाशाद में,
ना शाद दिल में, कभी रह पायेगी ।
करते हैं मुहब्बत, सितम सह कर,
अहले-वफ़ा है, और ना तड़पायेगी ।
पाती है पनाह, हालात - ए- हिज़्र में,
देख दिल का आलम, चली आयेगी ।
इज़ाजत दे दी है, भटकने की इसे,
वफ़ा दिल से, आख़िर ये निभायेगी ।
( मुक़र्रर = Assigned, fixed; शाद = State of happiness; हालात - ए- हिज़्र = In state of separation)
' रवीन्द्र '
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