सुर्ख़ तस्वीरे- वतन , बर्क़ आँखों में उनकी,
कहते हैं निगाहों में, तक़दीर लिये फिरते हैँ ।
निभाई हर बार मुहब्बत, ज़ुबां की जुम्बिश से,
आज भी हाथ में , वही तहरीर लिये फिरते हैँ ।
पास उनके सफाखाना, हर मर्ज़ो-मुसीबत का,
खुराके- शराफ़त, बिना तासीर लिये फिरते हैँ ।
आता नहीं ऐतबार हमें, उनके वफ़ानामे पर,
देखा है एक हाथ में, शमशीर लिये फिरते है ।
बदल सकती है तस्वीर, ना हो इनायत उनकी,
हम भी जहनो - ज़िगर, तदबीर लिये फिरते हैं ।
' रवीन्द्र '
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