दूर है मंज़िल नज़र से, कारवां-ए-मुश्क़िल देखते हैं,
उठी है ख़ामोश तसव्वुर में, वो बहारे-लगन देखते है,
जरा सा करीब तो आयें, वो मेहमां - नवाज़ी में मेरी,
रुख़सारे- मुश्क़िल में चुभी, तदबीरे- सुखन देखते हैं ।
' रवीन्द्र '
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दूर है मंज़िल नज़र से, कारवां-ए-मुश्क़िल देखते हैं,
उठी है ख़ामोश तसव्वुर में, वो बहारे-लगन देखते है,
जरा सा करीब तो आयें, वो मेहमां - नवाज़ी में मेरी,
रुख़सारे- मुश्क़िल में चुभी, तदबीरे- सुखन देखते हैं ।
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