ख़तों के ज़वाब, अब ना आने लगे,
संजीदगी से अब वो पेश आने लगे ।
बे-वक़्त मिलने का न था कभी सबब,
बहाने न मिलने के अब लगाने लगे ।
बैठ पहलू में जिनके मिलती थी ठंडक,
दूर से ही वो आग दिल में जलाने लगे ।
नज़रों से समझते थे जो दिल की बात,
पहेलियाँ नवेली सी अब बुझाने लगे ।
तफ़्तीश कर खूब पहचाना है हम को,
गैरों की तरह अब हम्हें आज़माने लगे ।
' रवीन्द्र '
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