मंज़र है ये सुबह का, सागर आसमाँ की बाँहों में है,
नफ़्स न हो जाये फ़ना, क्या तेरी इन निग़ाहों में है ।
उठती है औ' गिरती कभी, ज़िंद लहरों की संगत में है,
जज़बात तमाम रंग के, तसव्वुर के इस समन्दर में हैं ।
तू है जहाँ, हूँ मैं भी वहाँ, फासले जफ़ा के अंतस में हैं,
वक़्त की मेहरबानियाँ, जब चाह दिलों के अंदर में हैं ।
एक शै तो है कफ़स की, एक शै इसके अंदर में है,
आरज़ू ना इस चमन की, दिले-मस्त कलन्दर में है ।
सुकूँ सा दिखता शक्ल पे, अरमां दिल के अन्दर में हैं,
मौज़ उठती है सतह पे, तूफां तो तहे- समन्दर में है ।
' रवीन्द्र '
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY