पल पल की ख़बर खेल की, चुटकी में बताने वाले,
क्यूँ मिज़ाजे-मौसम की तर्फ़, नज़र मुख़ातिब न हुई ।
तंग-दिल निज़ाम से तेरी, मुक़म्मल ख़िदमत न हुई,
तकनीक तकदीरे-बद सी तेरी, मुल्क़ की हालत हुई ।
मदरसे तो बना चुके बहुत, तकनीक औ' प्रबन्धन के,
हो जहाँ से बेहतर, शोहरत किसी को हासिल न हुई ।
न तो हुकुमत को फ़िक्र कोई, ना ही ज़ज्बा है कौम में,
मलाल है मेहनतकशों को,बला की तू खूबसूरत न हुई ।
दिखता नहीं कुछ भी, उनको सियासत की हद से आगे,
ब-दस्तूर निगाहे-निज़ाम में, नज़र की तू ऐनक न हुई ।
गवारा नहीं बे-परदगी तुझको,सामने नामुराद नज़रों के,
अफ़सोस भली सी सूरत तेरी, सल्तनत को नज़ारा न हुई ।
हैं खामियाँ तुझमें भी तो, औ' तेरी शायरी में भी 'रवि',
बदल दे सोच इस ज़माने की, ग़ज़ल में वो कुव्वत न हुई ।
' रवीन्द्र '
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