अंगना -ए -दिल की, बुहार करता है,
ख्यालों में तुझ से, तक़रार करता है ।
मिले वही लम्हा, है फिर मुन्तज़िर,
इल्तिज़ा तुझसे, भरे दरबार करता है।
है बेहद परे तेरे, तसव्वुर की हद से,
तस्वीर निगाहों में, हर बार करता है।
टकरा के आती, अनजान दीवारों से,
भर के सदाओं में, इसरार करता है ।
कभी खुदी में तो, है बेखुदी में कभी,
प्यार वो बशर से, बे-शुमार करता है ।
कोई कहे अक़बर ,तो अनन्त कोई,
कहे कामिल कोई, इक़रार करता है।
अंगना -ए -दिल की, बुहार करता है,
ख्यालों में तुझ से, तक़रार करता है ।
' रवीन्द्र '
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