तुम दो घड़ी ज़रा पास बैठो ,
हारे मन की उड़ान थमने दो।
हसरतों की तीव्र प्यास को,
यथार्थ का नीर निगलने दो ।
ज़ख्मों में है अभी दर्द ज़्यादा ,
ज़रा ज़ोर-ए-दर्द निकलने दो ।
समय क्योँ हुआ कल ख़राब ,
सबब इसका ज़रा समझने दो।
सज़ा मिली है किस जुर्म की ,
घडी फ़ैसले की गुज़रने दो ।
दर्द मिला है किस से कितना,
हिसाब कुछ और समझने दो ।
ज़िन्दगी जंग नहीं तो क्या है,
ज़रा क़रीब से इसे परखने दो ।
घनघोर घटा समाँ है डरावना,
मिजाज़ ज़रा कुछ बदलने दो ।
भयभीत मन है अभी अनमना,
कतरा कतरा इसे पिघलने दो ।
सरे-राह दिल को दे सके सुकूँ ,
हमराह ऐसा कोई निकलने दो ।
कल न हो फिर कल के जैसा,
दुआ पाक दिलों से निकलने दो ।
ज़रा दो घड़ी तुम पास बैठो ,
हारे मन की थकान मिटने दो ।
' रवीन्द्र '
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