Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

ठौर

 

ढूँढ़ती जिसको नज़र, फलक के सितारों में,
गुलज़ार हुआ चमन में, बशर के इशारों में ।

 

बेकरारी का आलम, सब्र का और इम्तेहां,
मिला वो अक्सर हमें, खिंजा की बहारों में ।

 

आ सकें दर तक तेरे, और करें सज़दा तुझे,
ताब कहाँ इतनी बची, मुहब्बत के मारों में ।

 

है अहले-दिल ग़र कोई , तो सिर्फ़ गुल है,
बिखेरे रंग औ' खुशबू, जहाँ के नजारों में ।

 

मन्नतें, अरदास, बे-असर क़ाज़ी की दुआ,
ख़ुशी असल में मिली, तबस्सुमे - बेचारों में ।

 

बा-वास्ता मज़हबों से हैं, जां-गुज़र के लिये,
चस्पा हुआ है खुदा, तसव्वुर की दीवारों में ।

 

पाकीज़गी इश्क़ की, पुर्ज़ा पुर्ज़ा संगत में है,
ज़ुस्तजूं उस इल्म की, मिले जो नकारों में ।

 

तलाश जिसकी 'रवि', बशर दर बशर यहाँ,
ठौर है उसका कहीं , ख्यालों की दरारों में ।

 

 

( बशर= life, जीवन ; तसव्वुर= Imagination, कल्पना ; पाकीज़गी= Purity, पवित्रता; ताब= Heat, Power )

 

 

 

' रवीन्द्र '

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ